'साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है- उसका दरजा इतना न गिराइये. वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है.'
139 साल पहले 31 जुलाई को धनपत राय पैदा हुए थे. हम उन्हें प्रेमचंद के नाम से जानते और याद करते हैं. जी, मशहूर साहित्यकार, कलम का सिपाही प्रेमचंद! उनकी मौत भी 83 साल पहले हो चुकी है. यानी, कुल जमा 56 साल की उम्र पायी. ऊपर की लाइनें उन्हीं की हैं. 1936 की.
एक नज़र में लग सकता है कि आठ दशक पहले जो शख़्स इस दुनिया से जा चुका है, उसे याद करना महज़ एक रस्म अदायगी ही है.... क्योंकि जब वे लिख रहे थे तो देश गुलाम था. आज़ादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी. नया भारत बनाने के ढेरों ख्वाब थे. उस वक्त की समाजी- सियासी ज़रूरत कुछ और ही रही होगी.
चुनौतियाँ भी एकदम अलग थीं. हाँ, इतना ज़रूर है कि उनकी लिखी बातें उस वक्त को समझने के लिए ज़रूर कारग़र होंगी. मगर रचनाओं का जो भंडार वे जमा कर गए, अगर उन पर नज़र दौड़ाई जाए तो वे आज भी ज़िंदगी और समाज को समझने में निहायत मददगार है. इसलिए प्रेमचंद को याद करना, महज एक सालाना रस्म पूरा करना नहीं है.
आज़ादी के बाद हमने अनेक समाजी काम अधूरे छोड़े. इसलिए सत्तर साल बाद भी ऐसे ढेरों सवालों से हम हर रोज़ टकरा रहे हैं, जो सवाल मुल्क के सामने आज़ादी से पहले भी दरपेश थे. प्रेमचंद के दौर में भी फिरकापरस्ती यानी साम्प्रदायिकता, नफ़रत फैलाने और देशवासियों बाँटने का काम कर रही थी.
आज़ादी के आंदोलन की पहली पाँत के लीडरों की तरह ही प्रेमचंद का मानना था कि स्वराज के रास्ते में साम्प्रदायिक नफ़रत बहुत बड़ी बाधा है. इस सवाल के इर्द-गिर्द उनकी कई टिप्पणियाँ हैं. 1934 में एक लेख में प्रेमचंद कहते हैं कि 'हम तो साम्प्रदायिकता को समाज का कोढ़ समझते हैं जो ... अपना छोटा सा दायरा बना सभी को उससे बाहर निकाल देती है.'
आज हम पाते हैं कि साम्प्रदायिकता के नफ़रती विचार की यही कोशिश होती है कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आम भारतीयों के बीच फर्क की दीवार खड़ी की जाए. मज़हबी समूहों को सांस्कृतिक रूप में जुदा-जुदा साबित किया जाए. प्रेमचंद तो इसे दशकों पहले बखूबी समझ रहे थे. 15 जनवरी 1934 को छपी उनकी एक मशहूर टिप्पणी है- साम्प्रदायिकता और संस्कृति.
वे इसमें रेखांकित करते हैं- 'साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है. उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह ... संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है. हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को.
दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गए हैं, कि अब न कहीं मुसलिम संस्कृति है, न कहीं हिन्दू संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति.'
तो अब कौन सी संस्कृति है, वे जवाब देते हैं, 'अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक...'
संस्कृति को धर्म से घालमेल करने की राजनीति पुरानी रही है. वे बहुत ही साफ़ तौर पर कहते हैं, 'संस्कृति का धर्म से कोई सम्बंध नहीं. आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है लेकिन ईसाई संस्कृति और मुसलिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है...'
प्रेमचंद हिन्दुओं और मुसलमानों को सांस्कृतिक रूप से अलग साबित करने के सारे तर्कों को बारी-बारी से बड़ी सहजता और तार्किक तरीके धराशायी करते हैं. वे भाषा का सवाल उठाते हैं और पूछते हैं कि 'तो क्या भाषा का अन्तर है?' उनका जवाब है, 'बिल्कुल नहीं. मुसलमान उर्दू को अपनी मिल्ली भाषा कह लें, मगर मदरासी मुसलमान के लिए उर्दू वैसी ही अपरिचित वस्तु है जैसे मदरासी हिन्दू के लिए संस्कृत.
हिन्दू या मुसलमान जिस प्रान्त में रहते हैं, सर्व-साधारण की भाषा बोलते हैं चाहे वह उर्दू हो या हिन्दी, बांग्ला हो या मराठी. बंगाली मुसलमान उसी तरह उर्दू नहीं बोल सकता और न समझ सकता है, जिस तरह बंगाली हिन्दू. दोनों एक ही भाषा बोलते हैं.
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